नई दिल्ली | दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता और राज्यसभा सदस्य मनोज कुमार झा ने कहा है कि दुनिया में ‘लोकतंत्र की मां’ के रूप में जाने जाने वाले भारत के साथ सब कुछ ठीक नहीं है. ‘लोकतंत्र की जननी’ बुरी तरह बीमार है, इसके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया है.
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में शुक्रवार को ‘डेमोक्रेसी, डिसेंट एंड सेंसरशिप’ नामक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि, “यह मां पिछले नौ वर्षों में इतनी बीमार हो गई है कि इसके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया है.” जेएनयू के पूर्व शोधकर्ता उमर खालिद के 1000 दिनों की जेल पर उन्होंने कहा कि, “उमर ख़ालिद उस जुर्म के लिए जेल में है जो उसने कभी किया ही नहीं.”
अपने भाषण में झा ने लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की. उन्होंने कहा, “हमारे पास बहुत विचारशील और प्रतिबद्ध जज हैं लेकिन ज्यादातर वे इस प्रतिबद्धता को सेमिनारों में प्रदर्शित करते हैं. जब हम उन्हें सेमिनारों में सुनते हैं, तो हम अभिभूत महसूस करते हैं और आशा करते हैं कि वे हमारे देश को पूरी तरह से बदल देंगे, लेकिन जब मैं निर्णय देखता हूं, तो हमें प्रतिबद्धता और अच्छे शब्दों की कमी महसूस होती है. चाहे वह पूर्व न्यायाधीश हों या वर्तमान.
उन्होंने सवाल करते हुए कहा, “उमर ख़ालिद या उसके साथियों सफूरा, मीरान या शरजील का क्या गुनाह है?”
उन्होंने उमर ख़ालिद द्वारा रंजीत गुहा के मृत्यु पर लिखे लेख का ज़िक्र करते हुए कहा, उमर ने टेलीग्राफ में लिखा, “वर्तमान समय अलग है और उम्मीद बहुत कम है. लेकिन बढ़ते सत्तावाद और बहुसंख्यकवाद के हमारे दौर में भी जब लगता है कि सत्ता ने दुनिया को उल्टा कर दिया है, शब्दों के अर्थ उलटे हैं और खोखली भाषाएं हैं, तो हम गुहा के कार्यों के साथ आलोचनात्मक रूप से जुड़ेंगे.”
प्रोफेसर झा ने मारिया रसा द्वारा लिखित पुस्तक ‘हाउ टू स्टैंड अप टू ए डिक्टेटर’ का उल्लेख किया. उन्होंने मज़ाक में कहा, “इसका अपने वाले से कोई खास ताअल्लुक नहीं है.”
मारिया रसा ने लिखा है, “लोकतंत्र नाज़ुक है. आपको हर बिट, हर कानून, हर सुरक्षा, हर संस्था, हर कहानी के लिए लड़ना होगा. आपको पता होना चाहिए कि छोटे से छोटा घाव भी कितना ख़तरनाक होता है. यही कारण है कि हमें अपनी जगह पर खड़े रहना चाहिए.”
उन्होंने आशा व्यक्त की और कहा, “शायद जब हम अगले साल मिलेंगे, उमर यहां होंगे. जब मैं अगले साल कहता हूं, तो मैं अगले साल चुनाव का जिक्र नहीं करता. यह समयरेखा महज़ एक संयोग हो सकता है.”
उन्होंने कहा कि लोकतंत्र संस्थानों का संगम है. उन्होंने कई सवाल किए, “संस्थाएं कैसे काम कर रही हैं? विश्वविद्यालय कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं? हम उन संस्थानों से क्या उम्मीद करते हैं जहां हम जाया करते थे?”
उन्होंने आगे बताया, “जब हमें विधायिका में समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जब कार्यपालिका निरंकुश हो जाती है, तो हम न्यायपालिका के पास राहत मांगने जाते हैं. फिर उन्होंने पूछा, “लेकिन क्या होता है जब आपको लगता है कि न्यायपालिका से राहत मांगने से भी मदद नहीं मिल रही है?”
उन्होंने आशा व्यक्त की, “कल्पना कीजिए, उमर स्वतंत्र होगा. इस मामले में गिरफ्तार सभी मुक्त होंगे.”
उन्होंने हिंदी कवि अवतार सिंह पाश को पढ़ा जिन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे बड़ा धोखा है.
उन्होंने निराशा व्यक्त की, कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किसी को भी उठा कर सलाखों के पीछे डाला जा सकता है.
प्रधानमंत्री का नाम लिए बिना झा ने कहा, “यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा नहीं है, वास्तविकता यह है कि आप असुरक्षित महसूस करते हैं. उन्हें एक मज़बूत प्रधानमंत्री कहा जाता है, यकीन मानिए, मैंने प्रचंड बहुमत होने के बावजूद इतना बेबस पीएम नहीं देखा.”
प्रोफेसर झा ने कहा, “हमने सुना है कि विधि आयोग को यह कहने के लिए मजबूर किया गया था कि राजद्रोह कानून में अधिक कठोर दंड की आवश्यकता थी. यह उन लोगों के लिए है जिन्हें वित्तीय मामलों में फंसाया नहीं गया है, जैसे कि कार्यकर्ता और राजनेता जिन पर मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप नहीं लगाया जा सकता है.”
उन्होंने कहा, “जब पीएम को राष्ट्र के बराबर माना जाता है, तो पीएम की हर आलोचना को राष्ट्र की आलोचना के रूप में लिया जाएगा. हमें इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा लेकिन यकीन मानिए कि इस शासन की समाप्ति की तारीख नज़दीक है.”
उन्होंने कहा कि, 1000 दिन की क़ैद प्रतिरोध और आशा के 1000 दिन हैं.
उन्होंने स्पष्ट किया, “हमारा प्रयास केवल उमर तक ही सीमित नहीं है बल्कि सभी राजनीतिक बंदियों के लिए है. हम उन सभी से जुड़ाव महसूस करते हैं क्योंकि हम ‘होल्डिंग द लाइन’ से जुड़े हैं.”
उन्होंने एकजुटता के दायरे का विस्तार करने की आवश्यकता व्यक्त की. उन्होंने अपील की, ‘झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बारे में सोचिए, भीमा कोरेगांव के बारे में सोचिए.’ उन्होंने कहा कि, भीमा कोरेगांव की लड़ाई स्मृति की लड़ाई है.
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस लड़ाई को केवल राजनीतिक दलों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि यह राजनीतिक दलों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा, “राजनीतिक दल अंक गणित करते हैं क्योंकि उन्हें चुनाव लड़ना है. उन्होंने अपील की कि इस विरोध को बंद नहीं होने देना चाहिए. उन्होंने “हम लड़ेंगे, हम जीतेंगे” नारे के साथ अपनी बात समाप्त की.
जेएनयू के प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने कहा कि उमर खालिद को कैद करना न केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी है बल्कि एक सामाजिक क्षति है. उन्होंने कहा, “गौरतलब है कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान किसी भी बड़े नेता को इतने लंबे समय तक कैद में नहीं रखा गया. गांधीजी को कभी भी दो साल से ज़्यादा कैद नहीं किया गया था, और जवाहरलाल नेहरू की कैद की अवधि थोड़ी लंबी थी.”
उन्होंने स्पष्ट किया, “ऐसा नहीं है कि औपनिवेशिक शासक दयालु थे बल्कि उन दिनों न्यायपालिका अपेक्षाकृत कार्यपालिका से स्वतंत्र थी. अब हमारे पास ऐसी स्थिति है जहां न्यायपालिका अधीन है और हमारे पास कठोर कानून हैं.”
उन्होंने कहा, “यूएपीए को एक कठोर कानून के रूप में जाना जाता है. यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित मानवाधिकारों के खिलाफ है. यह लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ है.”
उन्होंने सुझाव दिया कि सुप्रीम कोर्ट को उमर खालिद जैसे सभी मामलों का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए और इस बात पर जोर देना चाहिए कि जो कोई भी एक साल से अधिक समय से जेल में है, उसे स्वत: ज़मानत का हकदार होना चाहिए, भले ही यूएपीए के मामले में कुछ भी कहा गया हो.
उन्होंने आगे कहा, “अगर सुप्रीम कोर्ट इन्हें स्वत: संज्ञान लेकर मामलों को सुनने के लिए तैयार नहीं है, तो हम में से कई लोग शीर्ष अदालत में अपील के लिए जाना चाहेंगे कि इसे एक नियम बनाया जाए कि मानवाधिकारों के लिए लड़ने वालों के लिए यूएपीए जैसे कठोर कानून नहीं बनाया जाना चाहिए.”
उमर के पिता और जाने-माने पत्रकार एसक्यूआर इलियास ने कहा कि, जब लोकतंत्र निरंकुशता में बदल जाता है, तो फासीवाद से भी आगे निकल जाता है, जब कानून के शासन को अराजकता से बदल दिया जाता है और जब असहमति एक अपराध होती है तो देश के युवाओं को आगे आना चाहिए.
उन्होंने कहा, “अगर कोई जानना चाहता है कि 1000 दिनों की जेल ने हमारा मनोबल गिराया है या उमर ख़ालिद और उसके दोस्तों का भरोसा डगमगाया है, तो मैं बता दूं कि हरगिज़ ऐसा नहीं है.”
उन्होंने दावा किया कि, यूएपीए के तहत जेल का सामना कर रहे युवक जब अदालत में आए तो उन्होंने उनके चेहरों पर आत्मविश्वास और शांति देखी.
उमर के पिता ने आशा व्यक्त करे हुए कहा, “यदि यह साहस नई पीढ़ी में आत्मसात हो जाता है, तो जो लोग सत्ता में हैं और सोचते हैं कि उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता है, उन्हें पता होना चाहिए कि उनके दिन ख़त्म हो गए हैं.”
उन्होंने कहा, “जब मैं उमर ख़ालिद को देखता हूं तो मुझे चिंता होती है, इसलिए नहीं कि वह मेरा बेटा है, बल्कि इसलिए कि खालिद सैफी, गुलफिशा, शरजील इमाम, शिफाउर रहमान जैसे और भी हैं जो मेरे बेटे और बेटियों की तरह हैं जो जेल में डाल दिए गए हैं.”
उन्होंने विस्तार से बताया, “जब यूएपीए लगाया गया तो आरोपी को यह साबित करना होता है कि वह निर्दोष है. इन युवाओं ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जहां हर नागरिक को रोजी-रोटी मिले, रहने की जगह मिले और न्याय मिले. लेकिन उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया गया है. यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की तुलना में एक छोटा सा बलिदान है.”
डॉ. इलियास ने कहा, “उमर एक सामान्य कॉलेज जाने वाला छात्र था, लेकिन जब उसे जेएनयू में प्रवेश मिला तो उसमें एक बड़ा बदलाव आया. उन्होंने आदिवासियों को करीब से देखा. उमर ने अपना पासपोर्ट बनवाने से मना कर दिया क्योंकि वह कहता था कि वह देश में बेज़ुबानों के लिए काम करना चाहता है. उमर खालिद और कन्हैया को 2016 में जेल हुई थी लेकिन कुछ भी साबित नहीं हो सका.”
उन्होंने इस पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए पूछा, “जब हमें अदालत से न्याय नहीं मिलता है, तो हम आम लोग कहाँ जायेंगे?”
उन्होंने कहा, “जब हमारे लोग नौकरशाही से निराश हो जाते हैं, तो वे अदालत की ओर देखते हैं, लेकिन जब अदालतें उन्हें निराश करती हैं, तो वे कहां जाएंगे?”
उन्होंने कहा कि हमें आवाज़ उठाने की ज़रूरत है और उस दिन का इंतज़ार नहीं करना चाहिए जब सभी आवाजें ख़ामोश कर दी जाएंगी.