रवीश पर बनी फ़िल्म देखने को कनाडा में 500 लोगों की क्षमता वाला हॉल पूरा भरा हुआ था!

मैं रवीश कुमार अब यह शब्द टीवी स्क्रीन से निकल कर 70 एमएम के पर्दे पर पहुंच गया है जी है आज भारतीय समयानुसार सुबह तीन बजे रवीश कुमार की पत्रकारिता जीवन पर आधारित फिल्म टोरंटो फिल्म फेस्टिवल (TIFF 2022) में रिलीज हो गया।

हिन्दी पत्रकारिता के लिए और हिन्दी माध्यम से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के लिए यह बेहद ही गौरव का यह क्षण है ।उम्मीद करते हैं यह फिल्म भारत के सिनेमा हांल में भी जल्द ही देखने को मिलेगा ।

वैसे हम भारतीयों की फ़ितरत में रवीश कुमार जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है क्यों कि संघर्ष ,व्यवस्था से लड़ने का स्वाभाव और सत्ता से सवाल करने की आदत हम भारतीय के स्वभाव के विपरीत है ।हमें क्रिकेट का भगवान तेंदुलकर चाहिए जो कभी अपने पूरे कैरियर में पिच पर लड़ते हुए नहीं दिखा लेकिन वो भगवान है, इसी तरह ‘सदी के महानायक’ अमिताभ को देख लीजिए फिल्म जगत में उनका क्या योगदान है।

लेकिन मेरे जैसे पत्रकारों के लिए रवीश कुमार एक चेहरा तो है जिसको देख कर बहुत कुछ सीखा जा सकता एक ऐसा व्यक्ति बिहार के छोटे से गांव से निकल कर दिल्ली पहुंचता है और चिट्ठी छाँटने की नौकरी से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत कर इस मुकाम तक पहुंचा है वो भी अंग्रेजी पत्रकारिता के बादशाहत को तोड़ कर ।

शुक्रिया रवीश कुमार उम्मीद करते हैं ऐसे लोग जिनकी लड़ाई आप चिट्ठी छाँटने के दिन से लड़ रहे हैं वो भी फूले नहीं समा रहा होगा लेकिन वो अपनी इस खुशी को अपने पति के सामने, पिता के सामने ,भाई के सामने, परिवार और नाते रिश्तेदार के सामने खुल कर व्यक्त नहीं कर सकता है क्यों कि ये इनकी आदत में शुमार नहीं है छुप छुप कर सब कुछ करेंगे लेकिन इजहारे मोहब्बत से अभी भी बचते हैं क्यों, लोग क्या कहेंगे।

वैसे रवीश जी अब बहुत हुआ कुछ अपनी जिंदगी भी जी लीजिए क्यों कि ये ज़िन्दगी रंगमंच है यहाँ हर एक को नाटक करना पड़ता है.
“माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती..
.यहाँ आदमी आदमी से जलता है…!!”

ऐसे में अब किसके लिए इतना तनाव लेनाजिसकी लड़ाई लड़ रहे है उसके पास इससे ज्यादा कुछ नहीं है बस रवीश कुमार पत्रकारिता को जिंदा रखा । छोड़िए अब इस फील्ड को अब क्या रखा है आपने दुनिया को एक शब्द दे दिया है गोदी मीडिया वो दिन दूर नहीं है जब यह शब्द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में अंकित हो जाये ।

अब क्या चाहिए गांव से दिल्ली अम्मा जी का आर्शीवाद लेकर निकले थे, सोचे थे यहां पहुंचेगे नहीं ना तो फिर निकलिए इस मायाजाल से लौट आइए अपने उसी गांव में जहां से सफर की शुरुआत किये थे ,एक नयी मंजिल की तलाश में क्यों कि किसी ने बस इसी के लिए आपको इस जहां में भेजा है।कुमार लड़ते रहना है गुनगुनाते रहना है सफर के डगर पर मुस्कुराते हुए चलते रहना मैं रवीश कुमार।

साभार: संतोष सिंह

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