हिजाबी छात्राओं के वकील ने कोर्ट में पूछा – हिंदुओं के घूंघट, ईसाइयों की सलीब, सिखों की पगड़ी पर प्रतिबंध नहीं तो हिजाब पर क्यों?

शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने की अनुमति मांगने वाले एक याचिकाकर्ता के वकील ने बुधवार को कर्नाटक उच्च न्यायालय से पूछा कि जब सभी धर्मों के प्रतीकों को अनुमति हैं तो स्कार्फ को क्यों निशाना बनाया जा रहा है। वरिष्ठ अधिवक्ता रविवर्मा कुमार ने कहा, “हिजाब केवल मुसलमान ही पहनते हैं।” उन्होने पूछा “घूंघट [घूंघट] की अनुमति है, चूड़ियों की अनुमति है। ईसाइयों  के सलीब पर और सिखों की पगड़ी पर प्रतिबंध क्यों नहीं?”

बता दें कि उच्च न्यायालय उडुपी जिले के कुंडापुर शहर में सरकारी महिला प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज की छात्राओं द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। हिजाब पहनने के कारण कक्षाओं में नहीं जाने दिए जाने के बाद से छात्रा पिछले महीने से विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। अब ये विरोध पूरे राज्य में फ़ेल चुका है।

5 फरवरी को, कर्नाटक सरकार ने “समानता, अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने वाले” कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया। 10 फरवरी को, तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कर्नाटक में छात्राओं को अगले आदेश तक स्कूलों और कॉलेजों में “धार्मिक कपड़े” पहनने से रोक दिया था। प्रतिबंध के बाद, कर्नाटक के कई स्कूलों ने छात्रों को हिजाब पहनकर कक्षाओं में जाने से रोक दिया है।

बुधवार की सुनवाई में, कुमार ने एक शोध पत्र का हवाला दिया जिसमें दिखाया गया था कि कई भारतीय अपनी धार्मिक मान्यताओं को अपनी पोशाक और कपड़ों से प्रदर्शित करते हैं। उन्होने कहा, “ज्यादातर मुस्लिम पुरुष सिर पर टोपी पहनते हैं।” उन्होंने कहा, “महिलाओं में, मुस्लिम [89%], सिख [86%] और हिंदुओं [59%] में सिर ढकना आम बात है।”

कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का हवाला देते हुए पेपर की प्रामाणिकता के बारे में पूछा। इस पर, कुमार ने कहा कि वह उच्च न्यायालय से शोध में उद्धृत आंकड़ों को स्वीकार करने के लिए नहीं कह रहे थे, बल्कि न्यायाधीशों को केवल भारत में धार्मिक प्रतीकों की विविधता की ओर इशारा कर रहे। अधिवक्ता ने कहा, “अगर 100 प्रतीक हैं, तो सरकार केवल हिजाब को ही क्यों चुन रही है?”

मुख्य न्यायाधीश रितु राज अवस्थी ने कहा कि अदालत कुमार की दलील पर विचार करेगी लेकिन शोध पत्र की प्रामाणिकता साबित होने तक उसे स्वीकार नहीं करेगी। कुमार ने यह भी तर्क दिया कि सरकार ने अन्य धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबंध लगाने पर विचार नहीं किया, और मुस्लिम लड़कियों के साथ उनके धर्म के आधार पर भेदभाव कर रही थी।

उन्होंने कहा, “शिक्षा का लक्ष्य बहुलता को बढ़ावा देना है, एकरूपता नहीं।” उन्होने ये भी कहा, “कक्षा समाज में विविधता का प्रतिबिंब होनी चाहिए।” अदालत ने कुमार से पूछा कि क्या उनके तर्क का मतलब यह है कि स्कूल में वर्दी नहीं होनी चाहिए। अधिवक्ता ने स्पष्ट किया कि वह प्रस्ताव दे रहे थे कि “विविधता” को बनाए रखा जाना चाहिए।

उन्होने कहा, “अनेकता में एकता का आदर्श वाक्य होना चाहिए।” उन्होंने ये भी कहा, “बहुलता को संरक्षित किया जाना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा: “अगर पगड़ी पहनने वाले लोग सेना में हो सकते हैं, तो उनके धार्मिक चिन्ह वाले व्यक्ति को कक्षाओं में जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती है? यह एक कठोर उपाय है।”

अपने मंगलवार के तर्कों को दोहराते हुए, वकील ने यह भी कहा कि कॉलेज विकास समितियां कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के तहत वैधानिक प्राधिकरण नहीं थीं। कुमार ने कहा कि राज्य सरकार ने कॉलेज विकास समितियों को वर्दी निर्धारित करने का अधिकार दिया है। उन्होंने तब बताया कि कर्नाटक शिक्षा अधिनियम के तहत, केवल “राज्य सरकार के अधीनस्थ अधिकारी या प्राधिकरण” के पास ही ऐसी शक्तियाँ हैं।

उन्होने कहा, “यह एक ऐसी समिति है जिसे [कर्नाटक शिक्षा अधिनियम की धारा 143] के तहत कोई शक्ति नहीं दी जा सकती है।” उन्होंने कहा, “यह अधिनियम के तहत एक प्राधिकरण नहीं है। क्या एक विधायक को सरकार का ‘अधीनस्थ’ माना जा सकता है?”

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