सदियों पुरानी यह ग़लतफ़हमी दूर करें, काफिर का मतलब हिन्दू नहीं होता: राजीव शर्मा

पिछले करीब 1400 सालों से एक शब्द ऐसा है जो अत्यंत विवाद और झगड़े का केंद्र रहा है। वह है- काफिर। खासतौर से भारत में यह समझा जाता है कि जो हिंदू है, वह निश्चित रूप से काफिर है अथवा जो मुस्लिम नहीं है, उसका नाम काफिर है।

वास्तव में ऐसा नहीं है। अगर कोई ऐसा समझता है तो वह गलत है। हमने सैकड़ों सालों से एक-दूसरे को शक, नफरत और अविश्वास की नजर से देखा है, इसलिए अब चाहे कोई बताए या न बताए लेकिन ज्यादातर हिंदू भाई यह मानते हैं कि मुसलमानों की नजर में वे काफिर हैं और कई मुसलमान भी इस गलतफहमी के शिकार हैं कि जो उनके धर्म को नहीं मानता, वह काफिर है। यह गलतफहमी हम पिछले 1400 साल से ढोए जा रहे हैं, पर समझने की कोशिश के लिए 14 मिनट भी नहीं देना चाहते।

आखिर यह गलतफहमी क्यों बढ़ती गई? इसकी सबसे बड़ी वजह है- हिंदू भाइयों द्वारा बिना किसी खोजबीन के यह मान लेना कि इस्लाम की नजर में वे काफिर हैं तथा कुरआन में उन्हें मारने का हुक्म दिया गया है। वहीं दुनिया के मुसलमानों ने भी यह बताने में ज्यादा मेहनत नहीं की कि जो मुस्लिम नहीं है, वह भी हमारा भाई है। किसी-किसी ने बताया लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनी गई।

अगर काफिर शब्द को सही-सही समझना है तो आपको न केवल कुरआन की कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा बल्कि हजरत मुहम्मद (सल्ल.) और उनके जमाने की परिस्थितियों को भी समझना होगा।

वह जमाना कैसा था जब नबी (सल्ल.) पर कुरआन उतरना शुरू हुआ? अरब में घोर अंधकार का युग था। मूर्खता का वातावरण ऐसा कि जिन मुहम्मद (सल्ल.) ने लोगों को इबादत का सही तरीका सिखाया और समझाया कि देखो, यूं झगड़ा-फसाद करते न फिरो, बल्कि भाई-भाई की तरह रहो… पढ़ने-लिखना सीखो, ज्ञान हासिल करो, जुए-शराब से दूर रहो, बेटियों को कत्ल न करो, साफ-सुथरे रहा करो… कुछ लोग उन्हीं के दुश्मन हो गए।

नबी (सल्ल.) ने लोगों को यह तक सिखाया कि जूता पहनो तो कैसे पहनो, खाना खाओ तो कैसे बैठो, कितना खाओ। यह सिखाया कि मेहमान बनो तो कैसे बनो। यह सिखाया कि कारोबार करो तो कैसे करो। यह बताया कि सौदा करो तो किसी के बीच में न बोलो। यह बताया कि माल तोलो तो पूरा तोलो। यह बताया कि कालाबाजारी कभी न करो।

यह सिखाया कि सोओ तो कैसे सोओ। यह बताया कि मां-बाप से कैसा सलूक करो। यह बताया कि औरत के क्या अधिकार हैं। यह बताया कि काले-गोरे में सिर्फ चमड़ी का भेद हैं, न कोई ऊंचा और न नीचा। यह समझाया कि किसी अरबी को गैर-अरबी पर कोई बड़ाई नहीं है।

ऐसी तमाम अच्छाइयां बयान करने के बाद हजरत मुहम्मद (सल्ल.) से लोगों ने कैसा सलूक किया? जिन लोगों ने मुहम्मद (सल्ल.) को सच्चा माना उन्होंने यह भी मान लिया कि इनके नबी होने में कोई शक नहीं है। वहीं कई लोग ऐसे भी थे जो नशे और अज्ञान में डूबे थे। वे नबी (सल्ल.) की जान के दुश्मन हो गए।

वे पूछते कि मुहम्मद (सल्ल.) क्या कह रहे हैं! उन लोगों को तो बुराइयों पर अभिमान हो चला था। खुद के बराबर किसी को समझते नहीं थे। शराब पीते तो तब तक पीते जब तक कि बेहोश न हो जाते। छोटी-छोटी बातों पर तलवार उठा लेते और ये जंग पीढ़ियों तक चलती रहतीं।

भले ही बच्चों के लिए विरासत में अनाज का एक दाना छोड़कर न जाएं लेकिन दुश्मन का नाम लिखकर जरूर जाते कि प्यारे बेटे, अगर तुमने फलां दुश्मन की गर्दन न उतारी तो समझो जिंदगी में कुछ नहीं किया। किसी का ऊंट गलती से दूसरे कबीले में चला जाता तो जंग छिड़ जाती। लड़ने-मरने से फुर्सत नहीं थी, इसलिए पढ़ाई-लिखाई का सवाल ही नहीं पैदा होता।

ऐसे वातावरण में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने बारीक से बारीक चीजें बताईं, जीने का सलीका सिखाया। कुछ लोग इस बात से चिढ़ गए। वे तो अपनी पुरानी उलटी रीत जारी रखने के हिमायती थे। उन्होंने मुहम्मद (सल्ल.) से दुश्मनी का ऐलान किया, उन्हें बेघर कर दिया। इतने से भी मन न भरा तो फौज लेकर आ गए, जंग लड़ी। वे मुहम्मद (सल्ल.) की हर बात से इन्कार करते रहे।

रब से इन्कार किया, मुहम्मद (सल्ल.) के पैगम्बर होने से इन्कार किया, भलाई का बदला बुराई से दिया। इस तरह ये इन्कारी काफिर कहलाए। इन्होंने मुहम्मद (सल्ल.) के कत्ल का इरादा कर लिया था, पर कामयाब नहीं हो सके। हमला किया जिसमें उन्हें नुकसान हुआ। अपनी बुराइयों पर अकड़ दिखाने वाले वे लोग काफिर थे, क्योंकि वे कुफ्र करते रहे, खुदा से इन्कार करते रहे, नबी (सल्ल.) को देखा, फिर भी पहचान नहीं सके, देखकर भी अनदेखा करते रहे। न रब को मानने को तैयार हुए, न मुहम्मद (सल्ल.) को।

इस्लाम में जहां कहीं काफिर शब्द आया है वह उन्हीं लोगों के लिए है। अब मैं भारत के हिंदू भाइयों की बात करता हूं।                     – हमने हजरत मुहम्मद (सल्ल.) को कोई तकलीफ नहीं दी।        – हमने नबी (सल्ल.) पर हमला नहीं किया।

– बेशक अरब या दुनिया के दूसरे हिस्सों में अज्ञान का अंधकार था लेकिन भारत में तब भी ज्ञान का प्रकाश था। हमारे ऋषियों ने शिक्षा, चिकित्सा, व्याकरण, ज्योतिष जैसे विषयों के महान ग्रंथ रचे। उन्हें पढ़कर आश्चर्य होता है कि हमारे ऋषि इतने महान थे।

– अरबों ने नबी (सल्ल.) को देखकर भी उनसे दुश्मनी की लेकिन भारत ने क्या किया? हमने उनके पैगाम का सम्मान किया और केरल में पहली मस्जिद बनाई। भारत का दिल इतना विशाल है। मुस्लिम भाइयों में से ज्यादातर को नहीं मालूम कि हमारी धरती पर नबी (सल्ल.) के जमाने की मस्जिद है। आप चाहें तो गूगल पर सर्च कर सकते हैं।

– कुरआन अपनी रक्षा के लिए उन काफिरों के खिलाफ युद्ध करने की बात कहता है जिन्होंने नबी (सल्ल.) पर हमला किया था, मगर उन्हें अक्ल आने पर नर्मी बरतने की बात भी कहता है। यहां उन हिंदुओं को मारने-काटने का संदेश नहीं दिया गया है जो अरब से सैकड़ों किमी की दूरी पर अपने घरों में बैठे हैं।

– कुरआन हजरत मुहम्मद (सल्ल.) पर उतरा अरब में, उन्हें सताया गया अरब में, उन पर युद्ध थोपा गया अरब में, फिर इस्लाम भारत में रहने वाले हिंदुओं को मारने की बात क्यों कहेगा? बात अरब की हो रही है तो हमारा उन काफिरों से क्या लेना-देना? इस बात को समझिए कि हिंदू काफिर नहीं हैं। कुरआन में जहां कहीं युद्ध की बात है, वह उन्हीं काफिरों के विरुद्ध है जिन्होंने मुहम्मद (सल्ल.) को कष्ट पहुंचाया।

– जिन काफिरों ने मुहम्मद (सल्ल.) को सताया, बाद में सुधर गए। उन्हें अपनी करनी पर पछतावा हुआ। बहुत थोड़े लोग थे जो युद्ध में मारे गए थे। ज्यादातर को नबी (सल्ल.) ने माफ कर दिया था। अब वो जमाना बीत चुका, उस दौर के लोग कब्रों में जा चुके। फिर हम काफिर शब्द को लेकर क्यों एक-दूसरे से झगड़ते फिरें?

– जो काफिर थे, वे मर गए, सुधर गए या खप गए, उनका क्या होगा – यह बात अब रब पर छोड़ दीजिए। उनके झगड़े आप अपने सिर मत लीजिए। उनके खिलाफ उतरी आयतों को खुद पर लागू मत कीजिए। आपको उनका बोझा नहीं उठाना है। उनका इन्साफ अब रब के हवाले है।

सबसे बड़ी बात यह है कि 1400 साल पुरानी इस गलतफहमी को अब आगे न ले जाएं, इसे यहीं छोड़ दीजिए। मेहरबानी कर अब एक-दूसरे को शक की निगहों से देखना और नफरत करना बंद कीजिए। हम पहले ही अपना बहुत नुकसान कर चुके हैं। अब और नुकसान मत कीजिए।

साभार: राजीव शर्मा

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